श्री खाटू श्याम मंदिर के दर्शन व यात्रा की सम्पूर्ण जानकारी Complete information about visit and visit of Shri Khatu Shyam Temple

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  •  खाटूश्यामजी

खाटू श्याम मंदिर 1720



श्री खाटू श्याम जी भारत देश के राजस्थान राज्य के सीकर जिले में एक प्रसिद्ध कस्बा है, जहाँ पर बाबा श्याम का विश्व विख्यात मंदिर है। ये मंदिर करीब 1000 साल पुराना है जिसे 1720 में अभय सिंह जी द्वारा मंदिर का पुनर्निर्माण कराया गया था इस मंदिर में भीम के पौत्र और घटोत्कच के तीनों पुत्रों में से ज्येष्ठ पुत्र बर्बरीक के सिर की पूजा होती है। जबकि बर्बरीक के शरीर की पूजा हरियाणा के हिसार जिले के एक छोटे से गांव स्याहड़वा में होती है।

सामान्य तथ्य खाटूश्यामजी, धर्म संबंधी जानकारी ...

  • खाटूश्यामजी
  • सीकर जिला, राजस्थान में खाटू श्याम जी मंदिर
  • धर्म संबंधी जानकारी
  • सम्बद्धता
  • हिन्दू धर्म
  • अवस्थिति जानकारी
  • ज़िला
  • सीकर
  • राज्य
  • राजस्थान
  • देश
  • भारत
  • वास्तु विवरण
  • निर्माता

राजा रूप सिंह चौहान

  • परिचय

  1. हिन्दू धर्म के अनुसार, खाटू श्याम जी ने द्वापरयुग में श्री कृष्ण से वरदान प्राप्त किया था कि वे कलयुग में उनके नाम श्याम से पूजे जाएँगे। श्री कृष्ण बर्बरीक के महान बलिदान से काफ़ी प्रसन्न हुए और वरदान दिया कि जैसे-जैसे कलियुग का अवतरण होगा, तुम श्याम के नाम से पूजे जाओगे। तुम्हारे भक्तों का केवल तुम्हारे नाम का सच्चे दिल से उच्चारण मात्र से ही उद्धार होगा। यदि वे तुम्हारी सच्चे मन और प्रेम-भाव से पूजा करेंगे तो उनकी सभी मनोकामना पूर्ण होगी और सभी कार्य सफ़ल होंगे।
  2. श्री श्याम बाबा की अपूर्व कहानी मध्यकालीन महाभारत से आरम्भ होती है। वे पहले बर्बरीक के नाम से जाने जाते थे। वे अति बलशाली गदाधारी भीम और माता अहिलावती के पौत्र हैं। बाल्यकाल से ही वे बहुत वीर और महान योद्धा थे। उन्होंने युद्ध कला अपनी माँ तथा श्री कृष्ण से सीखी। महादेव की घोर तपस्या करके उन्हें प्रसन्न किया और तीन अमोघ बाण प्राप्त किये; इस प्रकार तीन बाणधारी के नाम से प्रसिद्ध नाम प्राप्त किया। दुर्गा ने प्रसन्न होकर उन्हें धनुष प्रदान किया, जो उन्हें तीनों लोकों में विजयी बनाने में समर्थ था।
  3. महाभारत का युद्ध कौरवों और पाण्डवों के मध्य अपरिहार्य हो गया था, यह समाचार बर्बरीक को प्राप्त हुए तो उनकी भी युद्ध में सम्मिलित होने की इच्छा जागृत हुई। जब वे अपनी माँ से आशीर्वाद प्राप्त करने पहुँचे तब माँ को हारे हुए पक्ष का साथ देने का वचन दिया। वे अपने नीले रंग के घोड़े पर सवार होकर तीन बाण और धनुष के साथ कुरूक्षेत्र की रणभूमि की ओर चल पड़े।
  4. सर्वव्यापी श्री कृष्ण ने ब्राह्मण भेष धारण कर बर्बरीक का भेद जानने के लिए उन्हें रोका और उनकी बातों को सुनकर उनकी हँसी उड़ायी कि वह मात्र तीन बाण से युद्ध में सम्मिलित होने आए है; ऐसा सुनकर बर्बरीक ने उत्तर दिया कि मात्र एक बाण शत्रु सेना को परास्त करने के लिए पर्याप्त है और ऐसा करने के बाद बाण वापस तूणीर में ही आएगा। यदि तीनों बाणों को प्रयोग में लिया गया तो पूरे ब्रह्माण्ड का विनाश हो जाएगा। यह जानकर भगवान् कृष्ण ने उन्हें चुनौती दी की इस वृक्ष के सभी पत्तों को वेधकर दिखलाओ। वे दोनों पीपल के वृक्ष के नीचे खड़े थे। बर्बरीक ने चुनौती स्वीकार की और अपने तूणीर से एक बाण निकाला और ईश्वर को स्मरण कर बाण पेड़ के पत्तों की ओर चलाया। बाण ने क्षणभर में पेड़ के सभी पत्तों को वेध दिया और श्री कृष्ण के पैर के इर्द-गिर्द चक्कर लगाने लगा, क्योंकि एक पत्ता उन्होंने अपने पैर के नीचे छुपा लिया था | बर्बरीक ने कहा कि आप अपने पैर को हटा लीजिए अन्यथा ये बाण आपके पैर को भी वेध देगा। तत्पश्चात, श्री कृष्ण ने बालक बर्बरीक से पूछा कि वह युद्ध में किस ओर से सम्मिलित होगा; बर्बरीक ने अपनी माँ को दिये वचन को दोहराया और कहा युद्ध में जो पक्ष निर्बल और हार रहा होगा उसी को अपना साथ देगा। श्री कृष्ण जानते थे कि युद्ध में हार तो कौरवों की निश्चित है और इस कारण अगर बर्बरीक ने उनका साथ दिया तो परिणाम गलत पक्ष में चला जाएगा।
  5. अत: ब्राह्मणरूपी श्री कृष्ण ने वीर बर्बरीक से दान की अभिलाषा व्यक्त की। बर्बरीक ने उन्हें वचन दिया और दान माँगने को कहा। ब्राह्मण ने उनसे शीश का दान माँगा। वीर बर्बरीक क्षण भर के लिए अचम्भित हुए, परन्तु अपने वचन पर अडिग रहे। वीर बर्बरीक बोले एक साधारण ब्राह्मण इस तरह का दान नहीं माँग सकता है, अत: ब्राह्मण से अपने वास्तिवक रूप से अवगत कराने की प्रार्थना की। ब्राह्मणरूपी श्री कृष्ण अपने वास्तविक रूप में आ गये। श्री कृष्ण ने बर्बरीक को शीश दान माँगने का कारण समझाया कि युद्ध आरम्भ होने से पूर्व युद्धभूमि पूजन के लिए तीनों लोकों में सर्वश्रेष्ठ क्षत्रिय के शीश की आहुति देनी होती है; इसलिए ऐसा करने के लिए वे विवश थे। बर्बरीक ने उनसे प्रार्थना की कि वे अन्त तक युद्ध देखना चाहते हैं। श्री कृष्ण ने उनकी यह प्रार्थना स्वीकार कर ली। श्री कृष्ण इस बलिदान से प्रसन्न होकर बर्बरीक को युद्ध में सर्वश्रेष्ठ वीर की उपाधि से अलंकृत किया। उनके शीश को युद्धभूमि के समीप ही एक पहाड़ी पर सुशोभित किया गया; जहाँ से बर्बरीक सम्पूर्ण युद्ध का जायजा ले सकते थे। फाल्गुन माह की द्वादशी को उन्होंने अपने शीश का दान दिया था इस प्रकार वे शीश के दानी कहलाये।
  6. महाभारत युद्ध की समाप्ति पर पाण्डवों में ही आपसी विवाद होने लगा कि युद्ध में विजय का श्रेय किसको जाता है? श्री कृष्ण ने उनसे कहा बर्बरीक का शीश सम्पूर्ण युद्ध का साक्षी है, अतएव उससे बेहतर निर्णायक भला कौन हो सकता है? सभी इस बात से सहमत हो गये और पहाड़ी की ओर चल पड़े, वहाँ पहुँचकर बर्बरीक के शीश ने उत्तर दिया कि श्री कृष्ण ही युद्ध में विजय प्राप्त कराने में सबसे महान पात्र हैं, उनकी शिक्षा, उपस्थिति, युद्धनीति ही निर्णायक थी। उन्हें युद्धभूमि में सिर्फ उनका सुदर्शन चक्र घूमता हुआ दिखायी दे रहा था जो शत्रु सेना को काट रहा था। महाकाली, कृष्ण के आदेश पर शत्रु सेना के रक्त से भरे प्यालों का सेवन कर रही थीं।
  7. श्री कृष्ण वीर बर्बरीक के महान बलिदान से काफी प्रसन्न हुए और वरदान दिया कि कलियुग में तुम श्याम नाम से जाने जाओगे, क्योंकि उस युग में हारे हुए का साथ देने वाला ही श्याम नाम धारण करने में समर्थ है।
  8. उनका शीश खाटू नगर (वर्तमान राजस्थान राज्य के सीकर जिला) में दफ़नाया गया इसलिए उन्हें खाटू श्याम बाबा कहा जाता है। एक गाय उस स्थान पर आकर रोज अपने स्तनों से दुग्ध की धारा स्वतः ही बहा रही थी। बाद में खुदाई के बाद वह शीश प्रकट हुआ, जिसे कुछ दिनों के लिए एक ब्राह्मण को सूपुर्द कर दिया गया। एक बार खाटू नगर के राजा को स्वप्न में मन्दिर निर्माण के लिए और वह शीश मन्दिर में सुशोभित करने के लिए प्रेरित किया गया। तदन्तर उस स्थान पर मन्दिर का निर्माण किया गया और कार्तिक माह की एकादशी को शीश मन्दिर में सुशोभित किया गया, जिसके रूप में मनाया जाता है। मूल मंदिर 1027 ई. में रूपसिंह चौहान और उनकी पत्नी नर्मदा कँवर द्वारा बनाया गया था। मारवाड़ के शासक ठाकुर के दीवान अभय सिंह ने ठाकुर के निर्देश पर १७२० ई. में मंदिर का जीर्णोद्धार कराया। मंदिर इस समय अपने वर्तमान आकार ले लिया और मूर्ति गर्भगृह में प्रतिस्थापित किया गया था। मूर्ति दुर्लभ पत्थर से बना है। खाटूश्याम, परिवारों की एक बड़ी संख्या के कुलदेवता है।

कुछ प्रसिद्ध

नाम

बर्बरीक

  • श्री खाटू श्याम जी का बाल्यकाल में नाम बर्बरीक था। उनकी माता, गुरुजन एवं रिश्तेदार उन्हें इसी नाम से जानते थे। श्याम नाम उन्हें कृष्ण ने दिया था। इनका यह नाम इनके घुंघराले बाल होने के कारण पड़ा। बाबा श्याम को श्याम बाबा, तीन बाण धारी, नीले घोड़े का सवार, लखदातार, हारे का सहारा, शीश का दानी, मोर्वीनंदन, खाटू वाला श्याम, खाटू नरेश, श्याम धणी, कलयुग का अवतार, कल्युग के श्याम, दीनों का नाथ आदि नामों से भी पुकारा जाता है.

खाटू श्याम के 11 पवित्र नाम

  • जय श्री श्याम

  • जय खाटू वालेश्याम
  • जय हो शीश के दानी
  • जय हो कलियुग देव की
  • जय खाटू नरेश
  • जय मोर्वये
  • जय हो खाटू वाले नाथ की
  • जय मोर्विनंदन श्याम
  • लीले के अश्वार की जय
  • लखदातार की जय
  • हारे के सहारे की जय

  1. कैसे बने बर्बरीक खाटूश्याम जी ?

इनकी कहानी मध्य कालीन महाभारत से शुरू होती है । खाटूश्याम जी पहले बर्बरीक के नाम से जाने जाते थे वे अतिबलशाली भीम के पुत्र घटोत्कच और प्रागज्योतिषपुर (वर्तमान आसाम) के राजा दैत्यराज मूर की पुत्री कामकटंककटा “मोरवी” के पुत्र थे । खाटू श्याम जी बाल अवस्था से बहुत बलशाली और वीर थे उन्होंने युद्ध कला अपनी माता मोरवी तथा भगवान् कृष्ण से सीखी । उन्होंने भगवान शिव की आराधना करके उनसे तीन बाण प्राप्त किये थे । इस तरह उन्हें तीन बाण धारी के नाम से जाना जाने लगा और दुर्गा ने प्रसन्न होकर उन्हें धनुष प्रदान किये जो उन्हें तीनो लोको में विजय दिला सकता था ,जब महाभारत का युद्ध कोरवो और पांडवो के बिच चल रहा था | जब यह बात बर्बरीक को पता चली तो उनकी भी इच्छा युद्ध करने की हुए । वे अपनी माता के पास गए और बोले मुझे भी महाभारत का युद्ध करना है तो उनकी माता बोली पुत्र तुम किसकी तरफ से युद्ध करोगे । तब उन्होंने बोला में हारे हुए की तरफ से युद्ध करुगा । जब वह युद्ध करने जा रहे थे उन्हें रास्ते में उन्हें श्री कृष्ण मिले और उनका उपहास करते हुए बोले कि “ हे बालक ये क्रीड़ा भूमि नहीं युद्ध भूमि है तीन बाणों में युद्ध तो क्या सैनिक भी नहीं मरेंगे। बर्बरीक बोले कि “ हे ब्रह्मण देव ये बाण कोई साधारण बाण नहीं हैं मेरे आराध्य भगवान शिव ने मुझे ये तीन अचूक बाण दिए हैं इनसे मैं युद्ध को एक पल में समाप्त कर दूंगा।“ ब्रह्मण रूपी श्री कृष्ण ने बर्बरीक की परीक्षा ली और उन्होंने एक पीपल के पेड़ के पत्तों में छेद करने को कहा। बर्बरीक ने एक ही बाण से सम्पूर्ण वृक्ष के पत्तों को बिंध दिया। जिससे श्री कृष्ण ने उनसे उनका शीश दान में मांगा। बर्बरीक समझ गए कि ये कोई साधारण ब्राह्मण नहीं है। उसके बाद बर्बरीक ने ब्राह्मण को अपने वास्तविक रूप में आने को कहा। अपने गुरु श्री कृष्ण को सामने देखकर बर्बरीक ने उनसे पूछा कि “आपने ऐसा क्यों किया गुरूदेव”। तत्पश्चात् श्री कृष्ण बोले कि” हे बर्बरीक आज मुझे तुमसे गुरु दक्षिणा चाहिए थी इसलिए मैंने ये सब किया।“ बर्बरीक ने कहा कि ,”हे गुरुदेव मेरा शीश तो आप ले लीजिए किन्तु मैं सम्पूर्ण महाभारत का युद्ध देखना चाहता हूं।“ श्री कृष्ण ने वीर बर्बरीक के शीश को अमृत से सींचा और राहु के सिर के समान अजर अमर बना दिया। बर्बरीक के शीश को एक ऊंची पहाड़ी की चोटी पर रखा गया जहां से उन्हें सम्पूर्ण युद्ध दिखाई दिया। युद्ध समाप्त होने के बाद पाण्डवों को अपनी विजय का गर्व हो गया। उनके घमंड को तोड़ने के लिए श्री कृष्ण ने बर्बरीक से पूछा तो बर्बरीक के शीश ने कहा कि” गुरुदेव श्री कृष्ण के सुदर्शन चक्र ने ही सम्पूर्ण युद्ध में पापियों का अन्त किया है।“ उसके बाद श्री कृष्ण ने बर्बरीक को कुछ मांगने को कहा तो बर्बरीक ने श्री कृष्ण से उनका सांवला रंग मांगा। बर्बरीक के इस निस्वार्थ बलिदान को देखकर श्री कृष्ण बोले “कि मेरा सांवला रंग तुम्हारा हुआ बर्बरीक साथ ही मेरी सभी सोलह कलाएं तुम्हारे शीश में समाहित होंगी तुम्हारी पूजा मेरे श्याम नाम से की जाएगी और तुम मेरे ही प्रतिरूप बनकर पूजे जाओगे जो भक्त तुम्हारे दरबार में आएगा दुनिया में कोई ताकत उसे दुबारा हरा नहीं सकेगी और उनकी मनोकामनाएं भी पूरी होंगी।

  • श्री मोरवीनंदन खाटूश्यामजी

  1. ऋषि वेदव्यास द्वारा रचित स्कन्द पुराण के अनुसार महाबली भीम एवं हिडिम्बा के पुत्र वीर घटोत्कच के शास्त्रार्थ की प्रतियोगिता जीतने पर इनका विवाह प्रागज्योतिषपुर (वर्तमान आसाम) के राजा दैत्यराज मूर की पुत्री कामकटंककटा से हुआ। कामकटंककटा को “मोरवी” नाम से भी जाना जाता है। घटोत्कच व माता मोरवी को तीन पुत्र रत्नों की प्राप्ति हुई सबसे बड़े पुत्र के बाल बब्बर शेर की तरह होने के उसका नाम बर्बरीक रखा गया। ये वही वीर बर्बरीक हैं जिन्हें आज लोग खाटू के श्री श्याम, कलयुग के देव, श्याम सरकार, तीन बाणधारी, शीश के दानी, खाटू नरेश व अन्य अनगिनत नामों से जाने जाते हैं। अन्य दो पुत्रों के नाम अंजनपर्व और मेघवर्ण रखा गया। घटोत्कच के ज्येष्ठ पुत्र बर्बरीक महादेव शिव शंकर के अनन्य भक्त हुए।

पाण्डव कुलभूषण मोरवीनंदन खाटूश्याम

दादा का नाम : महाबली भीमसेन

दादी का नाम : हिडिंबा

पिता का नाम : महाबली घटोत्कच

माता का नाम : कामकटंककटा (मोरवी)

अस्त्र : तीन अमोघ बाण, धनुष

वाहन : नीला घोड़ा



पाठ्य : स्कन्द पुराण (कौमारिका खंड) भाई : अंजनपर्व और मेघवर्ण (दोनों छोटे भाई)

  1. बर्बरीक के जन्म के पश्चात् महाबली घटोत्कच इन्हें भगवान् श्री कृष्ण के पास द्वारका ले गये और उन्हें देखते ही श्री कृष्ण ने वीर बर्बरीक से कहा— हे पुत्र मोर्वेय! जिस प्रकार मुझे घटोत्कच प्यारा है, उसी प्रकार तुम भी मुझे प्यारे हो। तत्पश्चात् वीर बर्बरीक ने श्री कृष्ण से पूछा— हे गुरूदेव! इस जीवन का सर्वोत्तम उपयोग क्या है? वीर बर्बरीक के इस निश्छ्ल प्रश्न को सुनते ही श्री कृष्ण ने कहा— हे पुत्र, इस जीवन का सर्वोत्तम उपयोग, परोपकार व निर्बल का साथी बनकर सदैव धर्म का साथ देने से है। जिसके लिए तुम्हें बल एवं शक्तियाँ अर्जित करनी पड़ेगी। अतएव तुम महीसागर क्षेत्र (गुप्त क्षेत्र) में नवदुर्गा की आराधना कर शक्तियाँ अर्जन करो। श्री कृष्ण के कहने पर बालक बर्बरीक ने भगवान् को प्रणाम किया। श्री कृष्ण ने उनके सरल हृदय को देखकर वीर बर्बरीक को “सुहृदय” नाम से अलंकृत किया।
  2. तत्पश्चात् बर्बरीक ने समस्त अस्त्र-शस्त्र, विद्या हासिल कर, महीसागर क्षेत्र में ३ वर्ष तक नवदुर्गा की आराधना की एवं असीमित शक्तियाँ प्रदान कीं और एक दिव्य धनुष भी प्रदान किया , उसके बाद बर्बरीक ने अपने गुरु श्रीकृष्ण की प्रेरणा से भगवान शंकर की तपस्या की बर्बरीक की तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें तीन बाण प्रदान किए जिससे तीनों लोकों पर विजय प्राप्त की जा सकती थी। यहाँ उन्हें “चण्डील” नाम मिला। महादेव ने वीर बर्बरीक को उसी क्षेत्र में अपने परम भक्त विजय नामक एक ब्राह्मण की सिद्धि को सम्पूर्ण करवाने का निर्देश देकर अंतर्ध्यान हो गए। जब विजय ब्राह्मण का आगमन हुआ तो वीर बर्बरीक ने पिंगल, रेपलेंद्र, दुहद्रुहा तथा नौ कोटि मांसभक्षी पलासी राक्षसों के जंगलरूपी समूह को अग्नि की भाँति भस्म करके उनका यज्ञ सम्पूर्ण कराया। उस ब्राह्मण का यज्ञ सम्पूर्ण करवाने पर देवी-देवता वीर बर्बरीक से अति प्रसन्न हुए और प्रकट होकर यज्ञ की भस्मरूपी शक्तियाँ प्रदान कीं।
  3. एक बार की बात है बर्बरीक ने पृथ्वी और पाताल के बीच रास्ते में नाग कन्याओं का वरण प्रस्ताव यह कहकर ठुकरा दिया कि उन्होंने आजीवन ब्रह्मचारी रहने का प्रण लिया है।
  4. महाभारत युद्ध प्रारम्भ होने पर वीर बर्बरीक ने अपनी माता मोरवी के सम्मुख युद्ध में भाग लेने की इच्छा प्रकट की। तब माता ने इन्हें युद्ध में भाग लेने की आज्ञा इस वचन के साथ दी की तुम युद्ध में हारने वाले पक्ष का साथ निभाओगे। जब वीर बर्बरीक युद्ध में भाग लेने चले तब भगवान श्री कृष्ण ने महाभारत युद्ध के पहले ही इनको पूर्व जन्म (यक्षराज सूर्यवर्चा) के ब्रह्मा जी द्वारा प्राप्त अल्प श्राप के कारण एवं यह सोचकर कि यदि वीर बर्बरीक युद्ध में भाग लेंगे तो कौरवों की समाप्ति केवल १८ दिनों में महाभारत युद्ध में नहीं हो सकती और पाण्डवों की हार निश्चित हो जाएगी। ऐसा सोचकर श्री कृष्ण ने वीर बर्बरीक का शिरोच्छेदन कर महाभारत युद्ध से वंचित कर दिया। उनके ऐसा करते ही रणभूमि में शोक की लहर दौड़ गयी, तत्क्षण रणभूमि में १४ देवियाँ प्रकट हो गयीं। देवियों ने वीर बर्बरीक के पूर्व जन्म (यक्षराज सूर्यवर्चा) को ब्रह्मा जी द्वारा प्राप्त श्राप का रहस्योद्घाटन सभी उपस्थित योद्धाओं के समक्ष निम्न प्रकार किया—
  5. देवियों ने कहा: “द्वापरयुग के आरम्भ होने से पूर्व मूर दैत्य के अत्याचारों से व्यथित होकर पृथ्वी अपने गौस्वरुप में देव सभा में उपस्थित होकर बोलीं— “हे देवगण! मैं सभी प्रकार का संताप सहन करने में सक्षम हूँ। पहाड़, नदी, नाले एवं समस्त मानव जाति का भार मैं सहर्ष सहन करती हुई अपनी दैनिक क्रियाओं का संचालन भली भाँति करती रहती हूँ, पर मूर दैत्य के अत्याचारों से अति दु:खी हूँ। आपलोग इस दुराचारी से मेरी रक्षा कीजिए, मैं आपके शरण में आयी हूँ।”
  6. गौस्वरुपा धरा की करूण पुकार सुनकर सारी देवसभा में एकदम सन्नाटा-सा छा गया। थोड़ी देर के मौन के पश्चात् ब्रह्मा जी ने कहा— “अब तो इससे छुटकारा पाने का एक मात्र उपाय यही है कि हम सभी को भगवान् विष्णु की शरण में चलना चाहिए और पृथ्वी के इस संकट निवारण हेतु उनसे प्रार्थना करनी चाहिए।”
  7. तभी देवसभा में विराजमान यक्षराज सूर्यवर्चा ने अपनी ओजस्वी वाणी में कहा— “हे देवगण! मूर दैत्य इतना प्रतापी नहीं, जिसका संहार केवल विष्णु जी ही कर सकें। हर एक बात के लिए हमें उन्हें कष्ट नहीं देना चाहिए। आपलोग यदि मुझे आज्ञा दें तो मैं ही उसका वध कर सकता हूँ।”
  8. इतना सुनते ही ब्रह्मा जी बोले— “नादान! मैं तेरा पराक्रम जानता हूँ, तुम्हारे अहंकार ने इस देवसभा को चुनौती दी है। इसका दण्ड तुम्हें अवश्य मिलेगा। अपने आप को विष्णु जी से श्रेष्ठ समझने वाले अज्ञानी! तुम इस देवसभा से अभी पृथ्वी पर जा गिरोगे। तुम्हारा जन्म राक्षस योनि में होगा और जब द्वापरयुग के अंतिम चरण में पृथ्वी पर एक भीषण धर्मयुद्ध होगा तभी तुम्हारा शिरोछेदन स्वयं भगवान विष्णु द्वारा होगा और तुम सदा के लिए राक्षस बने रहोगे।“
  9. ब्रह्माजी के इस अभिशाप के साथ ही यक्षराज सूर्यवर्चा का मिथ्या गर्व भी चूर-चूर हो गया। वह तत्काल ब्रह्मा जी के चरणों में गिर पड़ा और विनम्र भाव से बोला— “भगवन! भूलवश निकले इन शब्दों के लिए मुझे क्षमा कर दीजिए मैं आपके शरणागत हूँ। त्राहिमाम! त्राहिमाम! रक्षा कीजिए प्रभु!”
  10. यह सुनकर ब्रह्मा जी में करुण भाव उमड़ पड़े, वह बोले— “वत्स! तुने अभिमानवश देवसभा का अपमान किया है, इसलिए मैं इस अभिशाप को वापस नहीं ले सकता हूँ। हाँ, इसमें संसोधन अवश्य कर सकता हूँ कि स्वयं भगवान् श्री कृष्ण तुम्हारा शिरोच्छेदन अपने सुदर्शन चक्र से करेंगे, देवियों द्वारा तुम्हारे शीश का अभिसिंचन होगा। फलतः तुम्हें कलयुग में देवताओं के समान पूजनीय होने का वरदान स्वयं भगवान् श्री कृष्ण भगवान से प्राप्त होगा।”

तत्पश्चात् भगवान् श्री हरि ने भी इस प्रकार यक्षराज सूर्यवर्चा से कहा—

तत्सतथेती तं प्राह केशवो देवसंसदि !

शिरस्ते पूजयिषयन्ति देव्याः पूज्यो भविष्यसि !! (स्कन्द पुराण, कौ. ख. ६६.६५)

भावार्थ: “उस समय देवताओं की सभा में श्री हरि ने कहा— हे वीर! ठीक है, तुम्हारे शीश की पूजा होगी और तुम देवरूप में पूजित होकर प्रसिद्धि पाओगे।“

वहाँ उपस्थित सभी लोगों को इतना वृत्तान्त सुनाकर देवी चण्डिका ने पुनः कहा— “अपने अभिशाप को वरदान में परिणति देख यक्षराज सूर्यवर्चा उस देवसभा से अदृश्य हो गये और कालान्तर में इस पृथ्वी लोक में महाबली भीम के पुत्र घटोत्कच एवं मोरवी के संसर्ग से बर्बरीक के रूप में जन्म लिया। इसलिए आप सभी को इस बात पर कोई शोक नहीं करना चाहिए और इसमें श्री कृष्ण का कोई दोष नहीं है।“

इत्युक्ते चण्डिका देवी तदा भक्त शिरस्तिव्दम !

अभ्युक्ष्य सुधया शीघ्र मजरं चामरं व्याधात !!

यथा राहू शिरस्त्द्वत तच्छिरः प्रणामम तान !

उवाच च दिदृक्षामि तदनुमन्यताम !! (स्कन्द पुराण, कौ. ख. ६६.७१,७२)

भावार्थ: “ऐसा कहने के बाद चण्डिका देवी ने उस भक्त (श्री वीर बर्बरीक) के शीश को जल्दी से अमृत से अभ्युक्ष्य (छिड़क) कर राहू के शीश की तरह अजर और अमर बना दिया और इस नविन जागृत शीश ने उन सबको प्रणाम किया और कहा— “मैं युद्ध देखना चाहता हूँ, आपलोग इसकी स्वीकृति दीजिए।“

ततः कृष्णो वच: प्राह मेघगम्भीरवाक् प्रभु: !

यावन्मही स नक्षत्र याव्च्चंद्रदिवाकरौ !

तावत्वं सर्वलोकानां वत्स! पूज्यो भविष्यसि !! (स्कन्द पुराण, कौ. ख. ६६.७३,७४)

भावार्थ: तत्पश्चात् मेघ के समान गम्भीरभाषी प्रभु श्री कृष्ण ने कहा— “ हे वत्स! जबतक यह पृथ्वी, नक्षत्र है और जबतक सूर्य, चन्द्रमा है, तबतक तुम सभी के लिए पूजनीय होओगे।

देवी लोकेषु सर्वेषु देवी वद विचरिष्यसि !

स्वभक्तानां च लोकेषु देवीनां दास्यसे स्थितिम !! (स्कन्द पुराण, कौ. ख. ६६.७५,७६)

भावार्थ: “तुम सैदव देवियों के स्थानों में देवियों के समान विचरते रहोगे और अपने भक्तगणों के समुदाय में कुल देवियों की मर्यादा जैसी है वैसी ही बनाए रखोगे”

बालानां ये भविष्यन्ति वातपित्त क्फोद्बवा: !

पिटकास्ता: सूखेनैव शमयिष्यसि पूजनात !! (स्कन्द पुराण, कौ. ख. ६६.७७)

भावार्थ: “तुम्हारे बालरुपी भक्तों के जो वात, पित्त, कफ से पीड़ित रोगी होंगे, उनका रोग बड़ी सरलता से मिटाओगे”

इदं च श्रृंग मारुह्य पश्य युद्धं यथा भवेत !

इत्युक्ते वासुदेवन देव्योथाम्बरमा विशन !! (स्कन्द पुराण, कौ. ख. ६६.७८)

भावार्थ: “और इस पर्वत की चोटी पर चढ़कर जैसे युद्ध होता है, उसे देखो, इस भाँती वासुदेव श्री कृष्ण के कहने पर सब देवियाँ आकाश में अंतर्ध्यान कर गयीं।“

बर्बरीक शिरश्चैव गिरीश्रृंगमबाप तत् !

देहस्य भूमि संस्काराश्चाभवशिरसो नहि !

ततो युद्धं म्हाद्भुत कुरु पाण्डव सेनयो: !! (स्कन्द पुराण, कौ. ख. ६६.७९,८०)

भावार्थ: “वीर बर्बरीक का शीश पर्वत की चोटी पर पहुँच गया एवं उनके धड़ को शास्त्रीय विधि से अंतिम संस्कार कर दिया गया पर शीश की नहीं किया गया (क्योंकि शीश देव रूप में परिणत हो गया था) उसके बाद कौरव और पाण्डव सेना में भयंकर युद्ध हुआ।“

  1. योगेश्वर भगवान् श्री कृष्ण ने वीर बर्बरीक के शीश को रणभूमि में प्रकट हुईं १४ देवियों (सिद्ध, अम्बिका, कपाली, तारा, भानेश्वरी, चर्ची, एकबीरा, भूताम्बिका, सिद्धि, त्रेपुरा, चण्डी, योगेश्वरी, त्रिलोकी, जेत्रा) के द्वारा अमृत से सिंचित करवाकर उस शीश को देवत्व प्रदान करके अजर-अमर कर दिया एवं भगवान् श्री कृष्ण ने वीर बर्बरीक के शीश को कलियुग में देव रूप में पूजित होकर भक्तों की मनोकामनाओं को पूर्ण करने का वरदान दिया। वीर बर्बरीक ने भगवान् श्री कृष्ण के समक्ष महाभारत के युद्ध देखने की अपनी प्रबल इच्छा को बताया, जिसे श्री कृष्ण ने वीर बर्बरीक के देवत्व प्राप्त शीश को ऊँचे पर्वत पर रखकर पूर्ण की एवं उनके धड़ का अंतिम संस्कार शास्त्रोक्त विधि से सम्पूर्ण करवाया...

  • महाभारत युद्ध की समाप्ति पर पाण्डवों में ही आपसी बहस छिड़ गयी कि युद्ध में विजय का श्रेय किसको जाता है। श्री कृष्ण ने कहा बर्बरीक के शीश से पूछा जाए कि उसने इस युद्ध में किसका पराक्रम देखा है। तब वीर बर्बरीक के शीश ने उत्तर दिया कि यह युद्ध केवल भगवान श्री कृष्ण की निति के कारण जीता गया है और इस युद्ध में केवल भगवान् श्री कृष्ण का सुदर्शन चक्र चल रहा था। वीर बर्बरीक के द्वारा ऐसा कहते ही समस्त नभमंडल उद्भाषित हो उठा एवं उस देव स्वरुप शीश पर पूष्प की वर्षा होने लगी और देवताओं ने शंखनाद किया। तत्पश्चात् भगवान् श्री कृष्ण ने पुनः वीर बर्बरीक के शीश को प्रणाम करते हुए कहा— “हे वीर बर्बरीक आप कलियुग में सर्वत्र पूजित होकर अपने सभी भक्तों के अभीष्ट कार्य को पूर्ण करोगे। अतएव, आपको इस क्षेत्र का त्याग नहीं करना चाहिए, हमलोगों से जो अपराध हो गये हैं, उन्हें कृपा कर क्षमा कीजिए।“
  • इतना सुनते ही पाण्डव सेना में हर्ष की लहर दौड़ गयी। सैनिकों ने पवित्र तीर्थों के जल से शीश को पुनः सिंचित किया और अपनी विजय ध्वजा शीश के समीप फहराये। इस दिन सभी ने महाभारत का विजय-पर्व धूमधाम से मनाया।

  1. वीरवर मोरवीनंदन श्री बर्बरीक का चरित्र स्कन्द पुराण के “माहेश्वर खंड के अंतर्गत द्वितीय उपखंड ‘कौमारिक खंड’” में सुविस्तारपूर्वक दिया हुआ है। ऋषि वेदव्यास जी ने स्कन्द पुराण में “माहेश्वर खंड के द्वितीय उपखंड कौमरिका खंड” के ६६ वें अध्याय के ११५वे एवं ११६वे श्लोक में इनकी स्तुति इस आलौकिक स्त्रोत्र से भी की है।

शीश के दानी

जब श्री कृष्ण ने उनसे उनके शीश की मांग की तो उन्होंने अपना शीश बिना किसी झिझक के उनको अर्पित कर दिया और भक्त उन्हें शीश के दानी के नाम से पुकारने लगे। श्री कृष्ण पाण्डवों को युद्ध में विजयी बनाना चाहते थे। बर्बरीक पहले ही अपनी माँ को हारे हुए का साथ देने का वचन दे चुके थे और युद्ध के पहले एक वीर पुरुष के सिर की भेंट युद्धभूमिपूजन के लिए करनी थी इसलिए श्री कृष्ण ने उनसे शीश का दान मांगा।

लखदातार

भक्तों की मान्यता रही है कि बाबा से अगर कोई वस्तु मांगी जाती है तो बाबा लाखों-बार देते हैं इसीलिए उन्हें लखदातार के नाम से भी जाना जाता है।

हारे का सहारा

जैसा कि इस आलेख मे बताया गया है बाबा ने हारने वाले पक्ष का साथ देने का प्रण लिया था, इसीलिए बाबा को हारे का सहारा भी कहा जाता है।

हारे हुए की तरफ से युद्ध करने की प्रतिज्ञा व् दादी माँ हिडिम्बा से मिले आदेश के कारण ही। भगवान श्री कृष्ण की मन में उठी समस्या के कारण ही बर्बरीक व बाबा के शीश को भगवान वासुदेव द्वारा माँगा गया। क्योंकि एक तो कुरु सेना अठारह दिनों से पहले खत्म नही हो सकती थी। तथा अन्य तथ्य यह था कि महाबली बर्बरीक हारे हुए कमजोर की तरफ से युद्ध करते इस लिए अंत में महाबली बर्बरीक के इलावा कोई नही बचता। क्योंकि जिस तरफ से वह युद्ध करते तो सामने वाला कमजोर हो जाता। फिर अपनी प्रतिज्ञा अनुसार उन्हें हारे हुए की तरफ से युद्ध करना होता। अतः अंत में केवल महाबली बर्बरीक ही जीवित रहते।



मोरछड़ी धारक

बाबा हमेशा मयूर के पंखों की बनी हुई छड़ी रखते हैं इसलिए इन्हें मोरछड़ी वाला भी कहते हैं।

युद्ध के बाद की कथा

युद्ध के बाद बर्बरीक द्वारा पाण्डवों के अभिमान का मर्दन हुआ और उसके बाद उनके शीश को रूपवती नदी में प्रवाहित किया गया। शीश बहता हुआ खाटू नामक गांव में पहुंच गया इसके बाद रूपवती नदी सुख गई और बर्बरीक का शीश वहीं दबा रह गया। उसके कई वर्षों बाद राधा नामक एक गाय थी वह गाय दूध देने में असमर्थ थी इसी कारण उसके मालिक ने उसे छोड़ दिया। गाय घूमते हुए उस स्थान पर पहुंची जहां बर्बरीक का शीश दफन था। वहां पहुंचते ही उसके थनों से दूध बहने लगा। जिसके बाद खाटू के राजा को जब इस बात का पता चला तो वे स्वयं वहां गए और वहां खुदाई करके उन्हे एक शीश दिखा जिसके पश्चात आकाशवाणी हुई कि यह ज्येष्ठ घटोत्कच पुत्र बर्बरीक का शीश है जिसे श्री कृष्णचन्द्र द्वारा उनके श्याम नाम से पूजे जाने का वर है। ये कलयुगी कृष्ण हैं। इनके लिए विशाल मंदिर का निर्माण करवाओ। आकाशवाणी के कुछ दिनों बाद मंदिर का निर्माण शुरू हुआ और देवउठनी एकादशी के दिन बर्बरीक के उस शीश की स्थापना मंदिर में हुई और वे बर्बरीक से खाटू श्याम बन गए। इसी कारण देवउठनी एकादशी के दिन बाबा श्याम का जन्मोत्सव मनाया जाता है।


भक्त है, जो बाबा की पूजा अर्चना करते हैं। लेकिन बहुत से लोग ऐसे होते हैं, जिनको खाटू श्याम की विधिवत पूजा अर्चना कैसे की जाती है?, इसकी जानकारी नहीं होती हैं। खाटू श्याम बाबा की पूजा अर्चना करना बहुत ही सरल हैं।


पूजा करने का तरीका

खाटू श्याम की पूजा करने के लिए आपके पास उनकी एक प्रतिमा होनी चाहिए। आप इसको बाजार से भी खरीद सकते हैं। मूर्ति को आप जिस जगह पर रखे, उसकी पहले साफ सफाई कर लें।



मूर्ति के अलावा आपके पास घी का दीपक, फूल, कच्चा दूध, प्रसाद सामग्री आदि सभी समान होना चाहिए। अब आप खाटू श्याम बाबा की प्रतिमा को आप कच्चे दूध या पंचामृत से स्नान करवाए।


स्नान करवाने के बाद आप किसी साफ कपड़े से बाबा की प्रतिमा को पोंछ लें। खाटू श्याम को सबसे पहले पुष्पमाला पहनाए। इसके बाद क्रमसा घी का दीपक तथा अगरबत्ती को जलाएं।


अब आप पंचामृत को चढ़ाए। पंचामृत को चढ़ाने के बाद भोग आदि को लगाएं। भोग लगाने के बाद खाटू श्याम बाबा की आरती और वंदन करें।


पूजा समाप्त होने के बाद खाटू श्याम बाबा से पूजा में हुई किसी भी प्रकार की गलती के लिए माफी मांगे। इसके बाद बाबा श्याम के जयकारे लगाए।


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खाटू श्याम के प्रमुख त्यौहार

खाटू श्याम मंदिर में फाल्गुन मास में सबसे बड़ा त्योहार मनाया जाता हैं। यह त्यौहार 5 दिनों के लिए मनाया जाता हैं। इस त्योहार में संगीतकार और गायक भजन और आरती को गाते हैं।


खाटू श्याम के आसपास घूमने की जगह

यदि आप बाबा खाटू श्याम के दर्शन करने आते है तो इनके मंदिर के आस पास भी कई जगह है, जहां आप घूम सकते हैं। यह जगह निम्न हैं:


श्याम कुंड

खाटू श्याम मंदिर के पास में एक श्याम कुंड बना हुआ है। लोगों का मानना है कि खाटू श्याम जी की गर्दन को इस कुंड से ही खोदकर निकाला था।



Shyam Kund

Image : Shyam Kund

श्याम कुंड की ऐसी मान्यता है कि जो भी श्रद्धालु या भक्त इस कुंड के जल में स्नान करते हैं तो व्यक्ति को किसी प्रकार का कोई भी चर्म रोग से संबंधित बीमारी नहीं होती हैं।


श्री श्याम वाटिका

बाबा खाटू श्याम मंदिर के बाई तरफ ही एक श्याम बगीचा हैं। इस बगीचे के फूले का इस्तेमाल बाबा को श्रंगार करने के लिए किया जाता हैं। शयाम वाटिका में आपको कई प्रकार के पुष्प देखने को मिल जाते हैं। वाटिका में ही आलू सिंह जी प्रतिमा लगी हुई हैं।


Shri Shyam Vatika

Image : Shri Shyam Vatika

बालाजी महाराज सालासर

बालाजी महाराज और खाटू श्याम बाबा के मंदिर के बीच की दूरी 110 किलो मीटर हैं। बालाजी मन्दिर बाबा हनुमान के भक्तों को एक पवित्र मंदिर हैं। सालासर बालाजी का मंदिर राजस्थान के चुरू जिले में स्थित हैं।


Balaji Mandir Salasar 

Balaji Mandir Salasar

यह मंदिर भारत वर्ष में फेमस हैं। चौत्र पूर्णिमा और अश्विन पूर्णिमा के दिन यहां पर भव्य मेले का आयोजन किया जाता हैं। मंदिर के पास में ही भक्तों के रहने के लिए धर्मशाला और खाने पीने के लिए रेस्टोरेंट भी बने हुए हैं।


हनुमान मंदिर

राजस्थान में खाटू श्याम मंदिर के आसपास घूमने लायक धार्मिक स्थलों में से एक हनुमान मंदिर है, जो ग्राम नांगल भरडा, तहसील चौमू में सामोद पर्वत पर स्थित है।


यह मंदिर खाटू श्याम मंदिर से 56 किलोमीटर की दूरी पर है। यह मंदिर पूरे भारत में प्रसिद्ध है, जिसके गर्भ ग्रह में भगवान हनुमान जी की 6 फीट की विशाल प्रतिमा स्थापित है।


इस मंदिर को सीताराम जी वीर हनुमान ट्रस्ट, सामोद के द्वारा बनाया गया है। यहां पर भगवान राम का भी एक मंदिर है।


लक्ष्मणगढ़ किला

खाटू श्याम मंदिर के आसपास घूमने लायक स्थलों में से एक लक्ष्मणगढ़ किला है। यह एक ऐतिहासिक इमारत है। इतिहास प्रेमियों के लिए यह एक लोकप्रिय स्थल है।


Laxmangarh Fort Sikar

यह किला सीकर जिले से 30 किलोमीटर की दूरी पर लक्ष्मणगढ़ नामक गांव में बनाया गया है। इस किले का निर्माण 1862 ईस्वी में सीकर के रावराज लक्ष्मण सिंह ने करवाया था और इसके 2 साल के बाद ही उन्होंने लक्ष्मणगढ़ नामक गांव यंहा बसाया था।


हालांकि लक्ष्मणगढ़ शहर की यह आकर्षक ऐतिहासिक इमारत एक निजी संपत्ति है। यह किला झुनझुनवाला परिवार की संपत्ति है। इस जिले की वास्तुकला बहुत ही आकर्षक है। किले की संरचना विशाल चट्टानों के बिखरे हुए हिस्सों पर बनी है।


जीण माता मंदिर

जीण माता की सबसे अधिक पूजा राजस्थान राज्य के लोग करते हैं। जीण माता का मंदिर खाटू श्याम बाबा के मंदिर से सिर्फ 25 किलोमीटर की दूरी पर स्थित हैं।


जीण माता को अष्टभुजा वाली माता के नाम से भी जाना जाता हैं। मंदिर के पुजारी और वहां के लोगों का कहना है कि यह मंदिर करीब 1000 वर्ष पुराना हैं।


Jeen-Mata-Mandir

Image: Jeen Mata Mandir

जीण माता मंदिर के विषय में एक ऐतिहासिक कहानी बहुत फेमस हैं। प्राचीन समय में दिल्ली का बादशाह औरंगजेब हुआ करता हैं। औरंगजेब सबसे क्रूर राजाओं में से एक था।


पूरे भारत को जीतने के उद्देश्य से उसने हर्ष पर्वत पर आक्रमण कर दिया था। हर्ष पर्वत पर कई मंदिर और गुफा को नष्ट कर दिया था।


जैसे ही वो जीण माता मंदिर की तरफ बड़ा तो जीण माता ने मधुमक्खी के स्वरूप रखकर उसकी सेना पर आक्रमण कर दिया था। एक साथ हुए मधुमक्खी के आक्रमण से उसकी सेना पस्त हो गई और मैदान को छोड़कर भाग गई।


इसके बाद औरंगजेब ने माता से माफी मांगी और सोने की बनी हुई प्रतिमा भेंट की तथा एक अखंड ज्योति भी जलाई, जो आज भी आपको जीण माता मंदिर में जलती हुई मिलती हैं।


गोल्डन वाटर पार्क

अगर आप खाटू श्याम मंदिर का दर्शन करने के लिए अपने बच्चों के साथ आते हैं तो खाटू श्याम मंदिर के आसपास घूमने लायक स्थलों में से एक गोल्डन वाटर पार्क है।


यह एक मनोरंजन पार्क है, जो 3 लाख वर्ग फीट में फैला हुआ है। इस गोल्डन वाटर पार्क को बने 6 7 साल हो चुके हैं। गर्मियों के मौसम में यहां पर काफी ज्यादा भीड़ रहती हैं। बच्चों के लिए यह मन पसंदीदा जगह है।


Golden Water Park Khatu Shyam Ji

वॉटर पार्क का खुलने का समय सुबह 9:30 बजे से लेकर शाम के 6:30 बजे तक का होता है। यहां पर टिकट शुल्क ₹300 है, वहीं बच्चों के लिए ₹200 है।


अगर कोई विद्यार्थी है तो अपना स्कूल आईडी दिखाकर ₹200 में प्रवेश प्राप्त कर सकता है। 3 साल से कम उम्र के बच्चों के लिए मुफ्त प्रवेश है। इस वाटर पार्क में पार्किंग, पोशाक और लोकर की भी सुविधा है। हालांकि उसके लिए शुल्क देना पड़ता है।


गणेश्वर धाम

गणेश्वर धाम में सभी देवी देवताओं की अलग अलग मूर्ति बनी हुई हैं। खाटू श्याम मंदिर से गणेश्वर धाम के बीच की दूरी 75 किलोमीटर हैं। जैसे ही आप गणेश्वर धाम के मुख्य द्वार के अंदर पहुचेगे वैसे ही आपको देवी देवताओं के मंदिर देखने को मिल जायेंगे।


Ganeshwar-Dham

धाम के अंदर एक विशाल कुंड बना हुआ हैं, जहां पर लोग स्नान आदि करते हैं। पहाड़ियों के माध्यम से कुंड में पानी एकत्र होता हैं। ऐसा कहा जाता है कि जो एक बार इस जल में स्नान कर लेता है, उसको जीवन भर चर्म रोग नहीं होता हैं।


खाटू श्याम का मंदिर किसने बनवाया था?

खाटू श्याम जी का मंदिर रूप सिंह चौहान तथा उनकी पत्नी नर्मदा कंवर ने 1027 ईसवी के आसपास बनाया था।


खाटू श्याम राजस्थान के कौन से जिले में स्थित हैं?

खाटू श्याम राजस्थान के सीकर जिले में खाटू गांव के पास में स्थित हैं।


खाटू श्याम कब जाना चाहिए?

खाटू श्याम अक्टूबर से लेकर मार्च तक के किसी भी महीने में जा सकते हैं।


जयपुर से खाटू श्याम कितने किलोमीटर है?

जयपुर से खाटू श्याम मंदिर की दूरी 80 किलोमीटर है।


खाटू श्याम बाबा किसका रूप है?

खाटू श्याम बाबा को भगवान श्री कृष्ण के कलयुग का अवतार माना जाता है।


निष्कर्ष

RAM 

इस आर्टिकल में श्री खाटू श्याम मंदिर के दर्शन व यात्रा की सम्पूर्ण जानकारी (Khatu Shyam Mandir ki Jankari) दी हैं तथा मंदिर के बारे में भी आपको इस मंदिर के इतिहास के बारे में भी लेख में बताया हैं।


उम्मीद करते हैं इस लेख में दी गई जानकारी आपके उपयोगी साबित होगी। यदि आपको यह लेख अच्छा लगे तो अपने दोस्तों के साथ शेयर जरूर करें


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